वांछित मन्त्र चुनें

गाय॒त्साम॑ नभ॒न्यं१॒॑ यथा॒ वेरर्चा॑म॒ तद्वा॑वृधा॒नं स्व॑र्वत्। गावो॑ धे॒नवो॑ ब॒र्हिष्यद॑ब्धा॒ आ यत्स॒द्मानं॑ दि॒व्यं विवा॑सान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

gāyat sāma nabhanyaṁ yathā ver arcāma tad vāvṛdhānaṁ svarvat | gāvo dhenavo barhiṣy adabdhā ā yat sadmānaṁ divyaṁ vivāsān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

गाय॑त्। साम॑। न॒भ॒न्य॑म्। यथा॑। वेः। अर्चा॑म। तत्। व॒वृ॒धा॒नम्। स्वः॑ऽवत्। गावः॑। धे॒नवः॑। ब॒र्हिषि॑। अद॑ब्धाः। आ। यत्। स॒द्मान॑म्। दि॒व्यम्। विवा॑सान् ॥ १.१७३.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:173» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तेरह ऋचावाले एकसौ तेहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है। उसमें आरम्भ से फिर विद्वानों के गुणों का वर्णन करते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (स्वर्वत्) सुखसम्बन्धी वा सुखोत्पादक (ववृधानम्) अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त (नभन्यम्) आकाश से बीच में साधु अर्थात् गगनमण्डल में व्याप्त (साम) साम गान को विद्वान् आप (यथा) जैसे (वेः) स्वीकार करे वैसे (गायत) गावें और (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में जो (गावः) किरणें उनके समान जो (अदब्धाः) न हिंसा करने योग्य (धेनवः) दूध देनेवाली गौएँ (दिव्यम्) मनोहर (सद्मानम्) जिसमें स्थित होते हैं उस घर को (आ, विवासान्) अच्छे प्रकार सेवन करें (तत्) उस सामगान और उन गौओं को हम लोग (अर्चाम) सराहें उनका सत्कार करें ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे किरणें अन्तरिक्ष में विथुर कर सबका प्रकाश करती हैं, वैसे हम लोगों को विद्या से सबके अन्तःकरण प्रकाशित करने चाहिये, जैसे निराधार पक्षी आकाश में आते-जाते हैं, वैसे विद्वानों और लोकलोकान्तरों की चाल है ॥ १ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्गुणानाह ।

अन्वय:

यत्स्वर्वद्ववृधानं नभन्यं साम विद्वान् यथा त्वं वेस्तथा गायद्बर्हिषि गाव इव याश्चादब्धा धेनवो दिव्यं सद्मानमाविवासाँस्तत्ताश्च वयमर्चाम ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (गायत्) गायेत् (साम) (नभन्यम्) नभसि साधु। अत्र वर्णव्यत्ययेन सस्य नः। (यथा) (वेः) स्वीकुर्याः (अर्चाम) सत्कुर्याम (तत्) (ववृधानम्) भृशं वर्द्धकम्। तुजादीनामित्यभ्सासदैर्घ्यम्। (स्वर्वत्) स्वः सुखं सम्बद्धं यस्मिँस्तत्। अत्र सम्बन्धे मतुप्। (गावः) किरणा इव (धेनवः) दुग्धदात्र्यः (बर्हिषि) अन्तरिक्षे (अदब्धाः) हिंसितुमयोग्याः (आ) (यत्) (सद्मानम्) सीदन्ति यस्मिँस्तम् (दिव्यम्) कमनीयम् (विवासान्) सेवेरन् ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा किरणा अन्तरिक्षे विस्तीर्णा भूत्वा सर्वं प्रकाशयन्ति तथाऽस्माभिर्विद्यया सर्वेषामन्तःकरणानि प्रकाशनीयानि। यथा निराधाराः पक्षिण आकाशे गच्छन्त्यागच्छन्ति तथा विदुषां भूगोलानाञ्च गतिरस्ति ॥ १ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वानांच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशी किरणे अंतरिक्षात पसरून सर्वत्र प्रकाश करतात तसे विद्येने आम्हा सर्वांच्या अंतःकरणात प्रकाश केला पाहिजे. जसे निराधार पक्षी आकाशात येतात, जातात तशी विद्वानांची व लोकलोकान्तराची गती असते. ॥ १ ॥